अव्यवस्थाओं की शिकार है बाबा केदारनाथ की यात्रा, शासन-प्रशासन की बदइंतजामी ने लोगों के लिए बढ़ा दी है मुश्किल

The visit of Baba Kedarnath is a victim of disorder, the mismanagement of governance and administration has increased the difficulty for the people.

नई दिल्ली: चार धाम यात्रा हर किसी का सपना है। छह महीने तक चलने वाली इस यात्रा को कई बार प्राकृतिक आपदा की नजर लगती है और यात्रा को कुछ दिनों के लिए स्थगित करना पड़ जाता है। लेकिन, बाबा केदार और बद्री विशाल में लोगों की आस्था इतनी कि यात्रा शुरू होते ही बड़ी संख्या में फिर से श्रद्धालु बाबा के दर पर पहुंचने के लिए निकल पड़ते हैं। इस साल जुलाई महीने के अंतिम सप्ताह में इस यात्रा को ऐसी ही प्राकृतिक आपदा की नजर लगी थी, लेकिन, हालात सामान्य हुए तो एक बार फिर से यात्रा को शुरू कर दिया गया।

 

इस सबके बीच हमने भी ठाना की बाबा केदार और बद्री विशाल का दर्शन करना है और मैं इसके लिए निकल पड़ा। अभी तक यात्रा पर निकलने से पहले वहां की लोकल मीडिया की जो रिपोर्ट पढ़ रहा था, वह यात्रा के लिए सुखद एहसास दिला रहा था। लेकिन, क्या पता था कि यात्रा का यह दिल में जगा सुखद एहसास जल्द ही काफूर होने वाला था। हरिद्वार से गाड़ी लेकर सोनप्रयाग के लिए निकला तो यह मेरी यात्रा का पहला दिन था और मुझे एहसास हो भी रहा था और मेरे साथ चल रहा चालक मुझे यह एहसास भी दिला रहा था कि साहब, अभी तो कठिनाइयों की शुरुआत है। यात्रा के मार्ग की अव्यवस्था देखकर कहीं आप यात्रा छोड़कर ना वापस हो जाएं। मैंने कहा नहीं, “ऐसा नहीं होगा, यहां की लोकल मीडिया तो बता रही है कि यात्रा में शासन-प्रशासन की तरफ से व्यवस्था शानदार की गई है।”

 

उधर से जवाब मिलता, “साहब, जा ही रहे हो तो एक बार जाकर देख लो। पता चल जाएगा कि यात्रा की व्यवस्था को लेकर सरकार की कथनी और करनी में कितना अंतर है।”

 

खैर, रुद्रप्रयाग तक पहुंचते-पहुंचते मुझे अपने गाड़ी के ड्राइवर की बात की सच्चाई का एहसास होने लगा था। यात्रा की शुरुआत के दौरान ढाबे पर खाना खा रहा था तो एक महिला से मुलाकात हुई। उन्होंने बातचीत में मुझसे जाना कि मैं पेशे से पत्रकार हूं तो भावुक हो गई। कहने लगी आप लोग इस यात्रा की अव्यवस्था की रिपोर्ट क्यों नहीं करते। मैंने बताया अरे यहां की मीडिया तो बता रही है कि यात्रा खूब बेहतर और सुचारू रूप से चल रही है।

 

उसने कहा, “काहे का सुचारू मेरी बेटी छोटी है हेली सेवा के लिए तीन दिन से ट्राई कर रही हूं। अनाप-शनाप पैसे मांग रहे हैं और कह रहे हैं तत्काल पैसा दीजिए तो भेज देंगे। जिनका टिकट कंफर्म है उनको वेटिंग में रखकर जो मुंह मांगा पैसा दे रहे हैं, उन्हें हेली सेवा का तत्काल लाभ दिया जा रहा है।”

 

मुझे लगा शायद बात ऐसे ही हो रही होगी। शायद इनको व्यवस्था नहीं मिली इसलिए यह ऐसा कह रही हैं। लेकिन, फाटा जहां से केदारनाथ के लिए हेली सेवा चलती है। वहां तक पहुंचते-पहुंचते कई ऐसे लोग मुझे मिल गए, जिन्होंने मेरी इस धारणा को गलत साबित किया और यह बता दिया कि वह महिला जो बोल रही थी, वह सच है।

 

खैर, मुझे क्या मुझे तो यात्रा पैदल करनी थी। इसलिए मैं सोन प्रयाग पहुंच गया, तब रात के 10 बजे थे। अपने द्वारा बुक किए गए होटल पहुंचकर मैं यात्रा के लिए उत्सुक था। सुबह किसी तरह इंतजार में कटी और मैं 4.30 बजे पैदल सोनप्रयाग में उस स्टैंड की तरफ बढ़ गया जहां से गौरीकुंड के लिए लोग सवारी गाड़ी की सेवा लेते हैं। वहां देखा तो उत्तराखंड पुलिस के जवान मुस्तैदी से लोगों को लाइन में लगा रहे थे और गौरीकुंड तक की यात्रा के लिए मिलने वाली गाड़ी के लिए गिनती के अनुसार आगे बढ़ने दे रहे थे। अव्यवस्था तो यहीं से शुरू थी। 50 रुपए सवारी और गाड़ी वालों का व्यवहार इतना रूखा कि देखकर ही डर लगने लगा। अभी तो पैदल चढ़ाई शुरू भी नहीं की थी। किसी तरह एक सवारी गाड़ी पर सवार हुआ और गौरीकुंड के लिए निकल पड़ा। रास्ते में सड़क की हालत देखकर कई बार जान मुंह में अटक आई। सड़कें इतनी खराब और खाई इतनी गहरी की लगे कि अब गाड़ी खाई में गई की तब गई।

 

ड्राइवर से उत्सुकता बस पूछ लिया भाई, सरकार इस सड़क को ठीक नहीं कराती क्या, जवाब मिला, आपको यात्रा करने को मिल रहा है ये कम है क्या? मैंने उससे पूछा मतलब, उसने कहा, साहब यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर है, जो व्यवस्था मिल रही है, उसका लाभ उठाइए और यात्रा के लिए जा रहे हैं तो अच्छे मन से जाइए। खैर, बातचीत करते-करते समझ आ गया था कि शासन-प्रशासन के मिली भगत के बिना ये संभव नहीं है। वहां गौरीकुण्ड पर पहुंचा तो नजारा ही कुछ और था। हर तरफ घोड़े की लीद बिखरी पड़ी, कूड़े का ढेर, बजबजाता कीचड़। अब यात्रा शुरू करनी थी। घोड़े-खच्चर वाले आवाज लगा रहे थे भैया घोड़ा। और, सबको एक ही जवाब दे रहा था मैं भाई, पैदल यात्रा करनी है। उधर से जवाब मिलता सभी यही कहते हैं। लेकिन, आधे रास्ते में जाते-जाते सब अपना इरादा बदल लेते हैं। घोड़े की जरूरत तो जरूर पड़ेगी।

 

घोड़े वाले चिल्ला रहे थे चार घंटे में केदार धाम। मैंने सोचा चलो घोड़े-खच्चर वालों को चार घंटे लगेंगे तो हम 8 घंटे में पैदल पहुंच जाएंगे। लेकिन, असली सत्यता से अभी वाकिफ होना तो बचा ही था। आगे बढ़ा तो उस सत्यता के भी दर्शन हो गए। यात्रा का मार्ग कहां था। थोड़ा चलो तो सड़कों पर बड़े-बड़े पत्थर बिखरे पड़े हैं। खाई की तरफ कहीं-कहीं रेलिंग लगी है, अधिकतर जगहों पर रेलिंग नहीं है। आपको धक्के देते पालकी, घोड़े-खच्चर वाले चले जा रहे हैं। आप कुचल जाएं या खाई में गिर जाएं, कोई देखने वाला नहीं। बारिश हुई तो सड़कों पर घोड़े की लीद और पहाड़ी मिट्टी ने इतनी फिसलन पैदा कर दी थी कि लोग चलते-चलते उन बेतरतीब पत्थरों पर फिसलकर गिर रहे हैं। मतलब साफ था कि जान जोखिम में थी।

 

खैर हम चलते रहे। थोड़ी देर के लिए भीमबली से घोड़े-खच्चरों का रास्ता अलग हुआ लेकिन, तब तक हम इतना डर चुके थे कि पूछो ही मत, रास्ते में कहीं-कहीं दुकानें थी, उनसे पूछा पास में कोई पुलिस कैंप या मेडिकल सुविधा। जवाब मिला 26 किलोमीटर की यात्रा तय कर लीजिए ऊपर केदार धाम में एक आध मेडिकल कैंप और प्रशासन के लोग दिख जाएंगे। मैंने पूछ दिया, अगर रास्ते में यात्रा के दौरान किसी को कुछ हो जाए कोई मेडिकल इमरजेंसी हो जाए तो, जवाब मिला, सरकार ने आपको बुलाया है क्या? आप तो खुद ही यात्रा पर आए हैं, अपने साथ दवाएं और मेडिकल किट लेकर आना चाहिए। दुकान वाले ऐसा क्यों बोल रहे थे ये तो तब समझ आया जब पता चला कि 20 रुपए की पानी की बोतल यहां 100 से 200 रुपए तक की मिल रही है। मैगी 50 से 100 रुपए की मिल रही है।

 

आगे बढ़ता रहा लेकिन, घोड़े-खच्चर वालों का आतंक कम नहीं हो रहा था। चारों तरफ अव्यवस्था ही अव्यवस्था। अब शाम ढलने लगी थी। शाम क्या ढली थी, 4 बजे ही ऐसा लग रहा था कि धुंध की वजह से रास्ता नजर नहीं आने लगा। मौसम ने करवट ले ली थी और बारिश होने लगी थी। यात्रा मार्ग पर फिसलन और कीचड़ ही कीचड़। ऊपर से घोड़े-खच्चर वालों का आतंक, वह सबको धक्का मारते निकल रहे थे। आप संभलें या खाई में गिरें आपको कोई देखने वाला नहीं है। रास्ते में लाइट की व्यवस्था नहीं कि आपको ट्रैक नजर आए। आखिर करें तो करें क्या। एक के पीछे एक आदमी एक दूसरे को देखते बस चले जा रहे थे। हम भी उन्हीं में से शामिल थे। घोड़े-खच्चर वाले का कोई रेट नहीं जिसको जितना थका देखा उससे उतना ज्यादा चार्ज किया।

 

किसी तरह केदार बाबा के मंदिर से पहले बेस कैंप तक पहुंचा तो रात के 8 बज रहे थे। एकदम शीतल हवा जो पूरे बदन में सिहरन उत्पन्न कर रही थी। कैंप में रहने की जगह ढूंढने लगे तो अनाप-शनाप डिमांड। किसी तरह एक कैंप में रहने की जगह मिली। लेकिन, अभी तो परीक्षा शुरू हुई थी। गर्म पानी के 100 रुपए। खाने का तो कोई रेट ही निर्धारित नहीं था। 400 से 600 तक एक आदमी के खाने की कीमत वह भी आधे पेट भोजन।

 

खैर, किसी तरह रात गुजारी और सुबह मंदिर में दर्शन को पहुंचा तो लंबी लाइन। लेकिन, अव्यवस्था ने यहां भी साथ नहीं छोड़ा। 2,500 से 5,000 रुपए तक दो और पंडित जी के साथ सीधे मंदिर में दर्शन करने चले जाओ। पंडित जी की कृपा पैसे के जरिए बरस रही थी। पैसा मिला तो जलाभिषेक भी बाबा का कर सकेंगे। नहीं तो बस धक्का-धुक्की के बीच बाबा को आंख भर निहार भी नहीं पाइए और बाहर जाइए। मतलब इतनी अव्यवस्था के बीच बाबा के दर्शन के लिए आया और वह भी ठीक से नहीं हो पाए तो मन कितना दुखता होगा। लेकिन, वहां सुनने के लिए बीकेटीसी के ऑफिस में भी लोग नहीं मिल रहे थे। पुलिस वाले तो खैर अलग ही रौब में नजर आए। आप वीआईपी हैं तो जी हां साहब की रट के साथ वह मंदिर के अंदर ले जाते नहीं तो फिर क्या आप लाइन में धक्के खाइए और फिर वापस जाइए।

 

इस यात्रा में इतना तो समझ आ गया कि बाबा केदार के दर्शन का सौभाग्य अच्छी तरह आपको तभी मिल सकता है, जब आप वीआईपी या वीवीआईपी हों। नहीं तो आपको पूछने वाला कोई नहीं है। पूरे यात्रा मार्ग में आपके साथ कोई मेडिकल या किसी तरह की इमरजेंसी हो जाए तो आप भगवान भरोसे ही रहेंगे। कोई आपको पूछने वाला नहीं है। वहां रास्ते के दुकानदार और घोड़े-खच्चर वाले अनाप-शनाप कमाई कर रहे हैं तो उनका सरकार की व्यवस्था से कोई अंतर नहीं पड़ता। उनके लिए तो सब ठीक है। उन्होंने आपकी आस्था को लूटमार का व्यापार बना रखा है। खैर उत्तराखंड सरकार के अधिकारियों और शासन-प्रशासन की मिलीभगत के बिना तो ऐसा संभव ही नहीं हैं।

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