क्या लेकर आये हो………

 

मेरे हक़ की जमीं वो आसमान तो मिले,
मेरी ख्वाहिशों को एक नई उड़ान तो मिले।

सूख चुके हैं जो डैम, नदी औ तालाब,
ऐ! बादल, उन्हें लहरों का उफान तो मिले।

खड़ी-खड़ी धूप में तप रही हैं जो नील गाएँ,
नहीं बचे जंगल कोई उन्हें बागान तो मिले।

एकदिन टूटकर गिर जायेगा वो चाँद-सितारा,
कोई बरसाए न मिसाइल, रुझान तो मिले।

घर से आजतक खुशबू नहीं गई जैसे माँ जिन्दा है,
उसे शिद्दत से याद रखनेवाली संतान तो मिले।

क्या लेकर आये हो तुम चंद साँसों के सिवाय,
समझानेवाला तुम्हें कोई इंसान तो मिले।

कोर्ट -कचहरी जाते -जाते थक जाते हैं लोग,
कोई सुलह करानेवाला खानदान तो मिले।

तलाशना है तो एक कतरे में समंदर तलाश,
समझ बढ़ाने के लिए कोई ज्ञान की खान तो मिले।

फर्श पे चाँदनी बिछाकर आज भी सोते हैं कुछ लोग,
ऐसे यतीमों को उनका घर-मकान तो मिले।

रचयिता: रामकेश एम. यादव ‘सरस’ मुंबई

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