नगरपालिकाओं के चयनित सदस्यों को लोक सेवक या उनके राजनीतिक आका मनमाने तरीके से नहीं हटा सकते : सुप्रीम कोर्ट
Selected members of municipalities cannot be arbitrarily removed by public servants or their political masters: Supreme Court
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नगरपालिकाओं के चयनित सदस्यों को लोक सेवकों या उनके राजनीतिक आकाओं की मर्जी से सिर्फ इसलिए नहीं हटाया जा सकता कि तंत्र को उनसे परेशानी हो रही है।
नई दिल्ली, 8 मई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नगरपालिकाओं के चयनित सदस्यों को लोक सेवकों या उनके राजनीतिक आकाओं की मर्जी से सिर्फ इसलिए नहीं हटाया जा सकता कि तंत्र को उनसे परेशानी हो रही है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि नगरपालिका “बिल्कुल जमीनी स्तर के लोकतंत्र” की इकाई है। न्यायमूर्ति सूर्य कांत की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि किसी नगरपालिका के चयनित सदस्य अपने रोजमर्रा के काम में समुचित सम्मान और स्वायत्तता के हकदार हैं। खंडपीठ में न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा भी शामिल थे।
उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र के तत्कालीन शहरी विकास मंत्री के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें उन्होंने नगरपालिकाओं के पार्षदों/पदाधिकारियों को हटा दिया था। उसने कार्रवाई को “पक्षपातपूर्ण, अन्यायपूर्ण और अप्रासंगिक अवधारणाओं पर आधारित बताया”।
एक याचिकाकर्ता पर महाराष्ट्र नगरपालिका परिषद, नगर पंचायत एवं औद्योगिक नगरी अधिनियम, 1965 के प्रावधानों के उल्लंघन और अनुमति से ज्यादा घरों के निर्माण का आरोप लगाया गया था।
कलेक्टर की जांच में आरोप सही पाये गये और आरोपी को कारण बताओ नोटिस भेजा गया।
कारण बताओ नोटिस की प्रक्रिया लंबित रहते हुए प्रभारी मंत्री ने दिसंबर 2015 में स्वयं संज्ञान लेते हुए याचिकाकर्ता मार्कंड उर्फ नंदू को उस्मानाबाद नगरपालिका परिषद के उपाध्यक्ष पद से हटाने का आदेश पारित दिया था। साथ ही उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया।
इसी प्रकार, नालदुर्गा नगरपालिका परिषद के अध्यक्ष को पद से हटाकर छह साल तक चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया। उनके खिलाफ सबसे कम बोली लगाने वाली कंपनी की अनदेखी कर कूड़ा उठाने और उसके निष्पादन का ठेका किसी दूसरी कंपनी को देने की शिकायत की गई थी।
इससे पहले 2016 में बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने सरकार द्वारा पार्षदों को अयोग्य घोषित किये जाने के आदेश में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया था।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि दोनों मामलों में की गई कार्रवाई और चुनाव लड़ने पर छह साल का प्रतिबंध उनके कथित कदाचार के अनुपात काफी अधिक है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “जिस प्रकार कलेक्टर के पास कारण बताओ नोटिस के चरण में लंबित रहने के बावजूद मामला राज्य सरकार के पास स्वतः संज्ञान के जरिये स्थानांतरित कर दिया गया और प्रभारी मंत्री ने जल्दबाजी में हटाने का आदेश पारित कर दिया, यह हमारे लिए इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए काफी है कि कार्रवाई पक्षपातपूर्ण, अन्यायपूर्ण और अप्रासंगिक अवधारणाओं पर आधारित है।”
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि कूड़ा उठाने और निष्पादन के लिए ठेका काफी चर्चा के बाद दिया गया था और यह सुनिश्चित किया गया था कि नगरपालिका को कोई नुकसान न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मामलों में पहले ही याचिकाकर्ताओं को सुनवाई लंबित रहते अपने-अपने पदों पर बने रहने की अनुमति दे दी थी।