गुरु ही ज्ञान का स्त्रोत, गुरु से ही आत्मा का उत्थान संभव — गुरु पूर्णिमा विशेष
गुरु का द्वार झुककर पार करो, तभी मिलेगा परमात्मा का साक्षात्कार
प्रेम प्रकाश दुबे की रिपोर्ट
निजामाबाद/आजमगढ़।भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा अवर्णनीय एवं अपरंपार है।गुरु को स्वयं परमात्मा के समान माना जाता है।गुरु ज्ञान का प्रकाशपुंज है।गुरु सबसे पहले होता है,माता पिता तो उसके पश्चात होते हैं।इस पार्थिव काया का जन्म तो माता के गर्भ से होता है,परन्तु इस काया को संस्कारित कर अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ाने का कार्य गुरु ही करता है।गुरु स्वयं वेद के समान होता है वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। ज्ञान अनंत है,इसका कोई अंत नहीं है।वेद अपौरुषेय ज्ञान है, जिसे किसी भी प्रयास और पुरुषार्थ से पाना संभव नहीं है।यह तो गुरु कृपा के द्वारा ही पाया जा सकता है।गुरु ज्ञान का दिव्य पुंज है,ऊर्जा का स्वरूप है,करुणा दया का स्रोत है।गुरु हमारी चेतना को परिष्कृत एवं परिमार्जित करता है और उसे दिव्य और पावन बनाता है।गुरु हमारे अंदर आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करके सत्य से शिव से साक्षात्कार कराता है।गुरु ही आत्मचेतना को विकसित कर परमात्मचेतना में विलय विसर्जन करने के लिए शिष्य को समग्र रूप से तैयार करता है।गुरु के सानिध्य से जीवन की दिशा और दशा ,दोनों ही परिवर्तित होते है।गुरु शिष्य को अपने चेतना रूपी गर्भ में तब तक गढ़ता है,जब तक वह पूर्ण रूप से पावन,पवित्र एवं दिव्य न बन जाय।गुरु की कृपा और शिष्य का समर्पण,दोनों सम्मिलित रूप से शिष्य के जीवन का संपूर्ण रूपांतरण कर देते है।दृश्य रूप में गुरु की काया तो पंच भौतिक तत्वों से ही विनिर्मित होती है ,परंतु वस्तुतः उसके अंदर परमात्मचेतना ही निवास किया करती है।सदगुरू से मिलन ही परमात्मा से मिलन है।परमात्मा सदगुरू के रूप में अवतरित होता है।सदगुरू शिष्य को प्रेम करना सिखाता है।सदगुरू सिखाता है समर्पण।वह कहता है कि “मै” मै नहीं हूं,बल्कि साकार रूप में उस निराकार का प्रतिनिधि हूं और तुम्हें साकार से होकर निराकार में समा जाना है।तुम आकार में निराकार को खोजो ,तभी तुम्हारा निराकार से मिलन हो पाएगा।सदगुरू कहता है मैं तो एक द्वार हूं व तुम्हे इस द्वार से होकर गुजर जाना है।सदगुरू कहता है मैं तो केवल एक द्वार हूं परमात्मा ही एक मात्र मंदिर है।द्वार से गुजरने के लिए तुम्हे झुकना पड़ेगा ,झुककर जाना होगा।स्वार्थ और अहंकार को लेकर गुरु रूपी इस द्वार से पार नहीं हुआ जा सकता है।स्वार्थ एवं अहंकार को विसर्जित करके ही परमात्मा रूपी मंदिर में पहुंचा जा सकता है।हमें अपने सदगुरू के प्रति अपने अंदर के शिष्यत्व को जाग्रत करने का कार्य इस पर्व पर करना चाहिए।