Azamgarh :मधुमक्खी पालन के लिए सरकार द्वारा बताए गए निर्देशों के तहत दवावों का करें छिड़काव
मधुमक्खी पालन के लिए सरकार द्वारा बताए गए निर्देशों के तहत दवावों का करें छिड़काव
आजमगढ़ ब्यूरो चीफ राकेश श्रीवास्तव
जिला उद्यान अधिकारी श्री हरिशंकर राम ने बताया है कि माह सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से ही धान, बाजरा, वन तुलसी एवं जंगली झाडियों में फूल आने लगता है। इन फसलों एवं झाड़ियों के फूलों से मधुमक्खियों को पराग एवं पुष्प रस की प्राप्ति होती है, अतः यह आवश्यक है कि उपयुक्त प्रक्षेत्र का चयन कर मौनवंशो को इन क्षेत्रों में माइग्रेशन कर दिया जाये। अगेती लाही के फूल मिलने तक मौनवंशों को पुष्प रस कम मिलता है, इसलिये उनकों आवश्यकतानुसार कृत्रिम भोजन भी देते रहना चाहिए। लाही/सरसों के प्रक्षेत्रों में 10-20 प्रतिशत फूल आने पर मौनवंशों का माइग्रेशन तुरन्त उन क्षेत्रों में कर देना चाहिये, पुष्प (बी-फ्लोरा) मिलते ही मौनों को पराग एवं मकरन्द पर्याप्त मात्रा में मिलने लगता है, मौनवंशो में प्रजनन की गति बढ जाती हैं, साथ ही मधुस्राव सीजन के लिए मौनवंश शक्तिशाली हो जाते हैं, फलस्वरूप मधु उत्पादन एवं प्रजनन मौनवंशों की वृद्धि में आशातीत सफलता प्राप्त होती है। मधुमक्खी पालन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक कार्यान्वित कराये जाने हेतु निम्नलिखित तकनीकी सुझाव अपनाने की सलाह दी जाती है। जिसके अन्तर्गत स्थानाभाव होने पर यथा आवश्यक मौमी छत्ताधार मौनवंशों को सुलभ करा देना चाहिए तथा काली/पीली सरसों में 10 प्रतिशत फूल खिल जाने पर मौनवंशों का माइग्रेशन अवश्य कर देना चाहिए। मौनगृहों पर सफेद रंग से पेन्टिंग करा कर इन पर लाल रंग से मौनालयवार मौनवंश संख्या अंकित की जाये। मौनगृह के तलपट एवं सम्बन्धित उपकरणों को पोटेशियम परमैगनेट/लाल दवा से माह में एक बार धुलाई करें। अधिक सर्दी से मौनवंशों की सुरक्षा के लिए प्रवेश द्वार छोटा किया जाये तथा टाप कवर के नीचे जूट का बोरा रख कर मौनवंशों का तापक्रम नियंत्रित रखे तथा मौन गृहों की दरारों को बन्द कर ठण्डी हवाओं से बचाना चाहिए। माइट के प्रकोप से बचाने के लिए मौनगृह के तलपट की साफ सफाई समय-समय पर करते रहना चाहिए एवं खाली मौनगृहों को धूप में सुखा कर मौनवंशों को बदलते रहना चाहिए तथा वाटमबोर्ड पर सल्फर की डस्टिंग करते रहना चाहिए। गत वर्ष के अधिक शहद उत्पादन करने वाले सशक्त मौनवंशों को मातृ मौनवंशों की श्रेणी में रखते हुए इनसे मौनवंशों का सम्बर्धन सुनिश्चित किया जाय, विभाजित मौनवंशों में गुणवत्तायुक्त नई रानी देने हेतु पूर्व से तैयार की गयी रानी को क्वीन केज के माध्यम से विभाजित मौनवंश में प्रवेश कराया जाय, जिससे कम समय में सशक्त मौनवंश का सम्बर्धन सम्भव हो सके। प्रदर्शन (मधु उत्पादक) मौनालय के ऐसे मौनवंश जिन्हें मातृ मौनवंश की श्रेणी में रखा गया है, उसकी प्रति पूर्ति मातृ मौनालय के मौनवंश से कर लिया जाये । मौमी पतिंगे की गिडारों की रोकथाम के लिए मौनवंशों को सुदृढ़ बनाये रखें तथा मौनगृहों की दरारों को बन्द रखें एवं खाली छत्तों को मौनगृहों से निकाल कर पॉलीथीन में पैक करके रखें, जिससे पुनः प्रयोग में लाये जा सकें। अत्याधिक पुराने एवं काले पड चुके छत्तों को नष्ट कर दें तथा उनकी प्रतिपूर्ति मोमी छत्ताधार लगाकर नये छत्तों का निर्माण कराकर कर लिया जाय ताकि मौनवंशों की गुणवत्ता प्रभावित न हों।
मौनवंशों को परजीवी अष्टपदी माइट के प्रकोप से बचाव हेतु सावधानियां एवं उपचार के अन्तर्गत बैरोवा एवं ट्रापलीलेप्स क्लेरी माइट यह दोनो प्रकार के माइट मौनवंशों के लारवा, प्यूपा एवं वयस्क मौनों के शरीर से रक्त (हीमोलिम्फ) को चूसते हैं. जिससे लारवा, प्यूपा एवं वयस्क माँनें मर जाती है। बैरोवा माइट से प्रभावित मौनें विकलांग एवं अविकसित रह जाती है, जो अवतारक पट (वाटम बोर्ड) के नीचे गिरी हुई मिलती है। ट्रापलीलेप्स क्लेरी माइट प्रभावित मौनों के पंख, पैर अविकसित एवं शरीर कमजोर हो जाता है तथा मौनें मौनगृह से गिर कर दूर रेंग कर जाती हुई दिखाई देती है।
बैरोवा एवं ट्रापलीलेप्स क्लेरी माइट से प्रभावित मौनवंशों में सल्फर पाउडर 2 ग्राम प्रति फेम की दर से सप्ताह में तीन-चार बार बुरकाव करना चाहिए। फारमिक एसिड 85 प्रतिशत की 3-5 मि०ली० मात्रा को एक दिन के अन्तराल पर एक शीशी में लेकर रूई की बत्ती बना कर मौनगृह के तलपट में शाम के समय रखे। यह उपचार 5 बार किया जाये तथा प्रत्येक दिन दवा को बदलते रहे। नीम का सूखा छिल्का नीम की पत्ती को किसी टिन के बर्तन में रखकर मौनगृह के तल पट पर धुओं करे। थाइमोल 01 ग्राम प्रति फेम की दर से बारीक पीस कर कपड़े से छानकर मौनवंशों को उपलब्ध कराना चाहिए।
माइट से बचाव हेतु सावधानियों के अन्तर्गत रोगग्रस्त क्षेत्रों में मौनवंशों का माइग्रेशन न करें। रोगी मौनवंशों के अण्डे एवं लारवा वाले छत्ते स्वस्थ मौनवंशों को न दे। मौनवंशों को शक्तिशाली बनाये रखे। मौनालय में लूट एवं लड़ाई न होने दे। रोगी मौनवंशों को स्वस्थ मौनवंशो से न मिलाये।
एकरैपिस बुडाई रैनी (एकरीन रोग) रोग एक प्रकार का सूक्ष्म आन्तरिक परजीवी एकरैपिस (बुडाई रैनी) के कारण होता है जो कमेरी एवं रानी मधुमक्खी की श्वांस नली में घुस कर शरीर से रक्त (हीमोलिम्फ) चूस कर अपना भोजन लेती है। एकरीन रोग से प्रभावित मौनों मौनगृह के द्वार पर रेंगती हुई चलती है तथा मौनों के पंख अंग्रेजी के ज्ञ अक्षर के आकार में दिखाई देती है। रोगी मौनों को पेचिश होने लगती है तथा मल के पीले-पीले धब्बे मौनगृह के अन्दर तथा बाहर छिटके हुए दिखाई देते है।
एकरीन रोग से प्रभावित मौनवंशों के उपचार हेतु फारमिक एसिड 85 प्रतिशत की 3-5 मि०ली० दवा प्रति मौनवंश की दर से एक दिन के अन्तराल पर 5 बार फ्यूमीगेशन सायंकाल करें। मिथाइल सैलीसिलेट दवा में सोखता कागज को भिगोकर शाम के समय गेट के अन्दर डाल देना चाहिए तथा सुबह इसे निकाल दे। यह उपचार एक सप्ताह तक लगातार करें। आक्जैलिक एसिड 3 प्रतिशत 5 मि०ली० प्रति ब्रूड चौम्बर की दर से 8 दिन के अन्तराल पर तीन छिडकाव करें।



