14 वर्ष की उम्र में छोड़ा घर… लक्ष्य को पाने के लिए त्याग दिया सारा पर्व, पढ़े अभिषेक मिश्रा की इमोशनल स्टोरी
रिपोर्ट अजीत कुमार सिंह बिट्टू जी ब्यूरो चीफ हिंद एकता टाइम्स
बलिया। हर किसी के दिल को टच कर जाती है इस छात्रा के संघर्ष और लक्ष्य को टारगेट करने की कहानी। हम बात कर रहे हैं बलिया जनपद के बैरिया ब्लॉक के चकिया गांव निवासी अभिषेक मिश्रा की जो सतीश चन्द्र कॉलेज बलिया से अपनी मास्टर्स डिग्री ( एमकॉम) हासिल कर रहे हैं और उसके साथ साथ कंपटीशन की भी तैयारी कर रहे हैं।
अभिषेक मिश्रा ने बताया कि मेरे पिताजी छत्तीसगढ़ में मुझसे हजार किलोमीटर दूर हमारे शिक्षा के लिए खर्चा भेजने के लिए 59 वर्ष की उम्र में छोटा सा व्यापार में दिलो जान से मेहनत कर रहे हैं कि मैं अच्छे से पढ़ लिख कर एक अच्छी नौकरी पकड़ सकू, और मेरा पूरा परिवार भी उनके साथ किराए के कमरे मे रहता हैं।
यह कविता पूर्णतः मेरे जीवन काल पर आधारित हैं, मैं महज चौदह वर्ष की एक छोटी सी उम्र में अपने मां बाप से दूर अपने जिला पर आकर अकेले एक छोटे से 8 बाई 8 के किराए के कमरे मे अपने मंजिल को प्राप्त करने के लिए मेहनत करना पसन्द किया था आज मुझे पुरे छः वर्ष हो गए अपने परिवार, मां बाप से दूर अपने हाथों से खाना बनाकर खाते हुए। मैं पीछले छः वर्षों से आजतक किसी भी वर्ष किसी त्यौहार को मनाने के लिए घर नहीं गया प्रत्येक वर्ष मां बाप से अगले वर्ष आऊंगा कह कर अकेले बलिया में शांति से बंद कमरे मे अपने मंजिल के लिए कड़ी मेहनत करता रहा।
पीछले कुछ दिनों पहले मैं किसी भर्ती से बाहर हुआ था और मैं बहुत ज्यादा दुखी था, और बैठ कर यही सोच रहा था कि एक नौकरी व अपने मंज़िल को पाने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता हैं और यहीं सोच कर फिर से आगे कैसे तैयारी करना हैं सोच रहा था तो मेरे इस चंचल मन में यह ख्याल आया कि क्यों न अपने इस संघर्ष को एक कविता में प्रदर्शित कर दु और हम अक्सर देखते हैं की जब एक व्यक्ती सफल होता हैं तो उसके संघर्षों की कहानी पर एक स्टोरी या फिल्म बनती हैं, मैं भी यहीं सोच कर लिखा कि जब मैं भी सफल हों जाऊंगा तो इस कविता को याद करुंगा, इसी के साथ अपने आप को पुनः मोटिवेट करने के लिए मैंने अपने संघर्षों को इन चंद शब्दों की कविता में प्रदर्शित किया,
इसका शीर्षक “मंजिल” रखने का मुख्य मकसद मात्र यही था कि कैसे एक छात्र को अपनी मंज़िल पाने के लिए कितना संघर्ष व त्याग करना पड़ता हैं तब जाकर कहीं वो अपनी मंजिल को हासिल करता है।
मेरे पिता जी के द्वारा कहें गए शब्द हमेशा मुझे प्रेरणा देते हैं कि
मैं जिस समय तुम्हारा एडमिशन कक्षा नर्सरी में करवाया था उस वक्त भी मुझे कर्ज लेना पड़ा था और आज तुम्हें मास्टर डिग्री दिलवा रहा हूं तो भी किसी से कर्ज लेकर मैंने अपने जीवन में कोई पूंजी व पैसा इकट्ठा नहीं किया हैं मेरे लिए मेरी सबसे बड़ी पूंजी मेरे बच्चे हैं यदि वो अच्छे से पढ़ लिख लिए तो उनसे बड़ा पूंजी मेरे लिए क्या हों सकता हैं।
इसलिए मैं हमेशा उनके इन बातों को ध्यान मे रखता हूं और कभी भी अपना ध्यान अपने लक्ष्य से दूर नहीं करता। इसी क्रम में अपने कर्म को अपना धर्म समझ कर पूरी निष्ठा से मेहनत करता हूं और ईश्वर से कामना करता हूं कि मेरे मंजिल को हासिल करने में मेरा साथ दे।
इस कविता के माध्यम से मैं अपने उन सभी साथियों से कहना चाहूंगा कि मंज़िल का रास्ता बहुत कठिन होता हैं इसे हासिल करते समय बहुत सारी बाधाएं रास्ते में आएंगी लेकिन उससे डर के पीछे नहीं हटना हैं बल्की डट कर सामना करना हैं, और मेहनत यदि ईमानदारी से हुई तो अवश्य ही इसका परिणाम अच्छा मिलेगा।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभिषेक मिश्रा ने अपने जीवन पर एक कविता ही लिख डाली, जो निम्नप्रकर है…
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में, ये चाहत है मेरे कलमों की, तुझे पाना हैं अपनी मेहनत से।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में।
एक उम्र हैं हमने खर्च किया, क्योंकि तुमसे अलग ही नाता हैं, उस उम में था कलम पकड़ लिया, जिस उम्र में घूमते फिरते थे, उस उम्र में था घर को छोड़ दिया, जिस उम्र में घर पर खेलते थे, ऐ मंजिल तुझे पाने की चाहत में, घर से हमने हैं रुख मोड़ लिया।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में।
जिस हाथों में था बल्ला पकड़ना, उस हाथों में हैं बेलन, चूल्हा – चौंकी कर के पढ़ना, होता हैं इतना आसान कहां, पर ऐ मंजिल तेरी चाहत में, लगता ये सब आसान मुझे, भरना हैं ऊंची उड़ान मुझे, क्योंकि जिद्द हैं तुझको पाने की।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में।
होता इतना पाना सरल तुझे तो, पा लेता हर कोई तुझे, लेकिन हैं इतना सरल कहां, जो पा ले तुझको चिंतन से, तू मिलती उसको हैं आसानी से, जो चाहें तुझको शिद्दत से, जो कठिन परिश्रम करे मन से, मिलती उसको आसानी से।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में।
घर छूटा, गांव छूटा, रिश्ते टूट गए, अब तो तू ही एकमात्र सहारा है, ऐ मंजिल तुझे पाने की चाहत में, जाने कितने हैं हमसे रूठ गए, अब फिक्र नहीं हैं जमाने की हमको, की कौन हमसे हैं रूठ गया, हों जाएंगे अपने सब, जिस दिन तुमने हमको अपना मान लिया।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में।
हों जाएंगी सफल ये सारी मेहनत, जिस दिन मिलोगी हमको, मां-बापू के भेजे सारे खर्चे हमको, सफल हो जाएंगे उस दिन, लोगों के ताने तब सुनने को, नहीं मिलेंगे हमारे मां-बापू को, उम्र बढ़ जाएगी उनके जीवन की, जो घटती हैं उनकी जा रही, जो त्याग किया हमे पढ़ाने में, वो फिर से उनको मिल जाएगा, न जाने कितने कष्ट उठाकर, हमको पढ़ने का खर्चा भिजवाया।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदल दूं हर मौसम में।
हम उसी उम्मीद में लगे हुए हैं, मेहनत मेरा हथियार है, रोज उसमें हैं धार लगाते, जिसे हमे लेकर रण में जाना है, हैं इस कर्म भूमि पे जन्म लिया, तो कर्म करना है धर्म मेरा, फल की चिंता क्या करना है, जो है ही नहीं अपने हाथों में, कर्म से पीछे क्यों हटना, जब केवल कर्म ही हैं अपने हाथों में, फल तो हमको मिल ही जाएगा, जब कर्म किया हों शिद्दत से।
हूं नदी नहीं “कैनो क्रिस्टल्स”, जो रंग बदलू हर मौसम में।