गायत्री शक्तिपीठ महावीर घाट गंगा जी मार्ग बलिया में
रिपोर्टर अजीत कुमार सिंह बिट्टू जी ब्यूरो चीफ हिंद एक्टर टाइम्स
21 जुलाई गुरु पूर्णिमा*बहुत ही श्रद्धा और उल्लास के साथ नौ कुण्डिय गायत्री महायज्ञ में गुरु पूजन के साथ अपनी अपनी आहुति समर्पित किया गया इस अवसर पर गायत्री शक्तिपीठ के व्यासपीठ से विशेष संदेश में बिजेंद्र नाथ चौबे जी ने कहा
*गुरु का सब कुछ शिष्य का है*
*इस दिन गुरुचेतना अंतरिक्ष में सघन होकर शिष्यों के अंतस् में बरसती है। सच्चे शिष्य अपने आराध्य की परिचेतना की उस अपूर्व वृष्टि को अनुभव करते हैं और कृतकृत्य होते हैं। गुरु की स्मृति मात्र से ही शिष्य की आँखें छलक उठती हैं, रोमाबलि पुलकित हो जाती है, भाव भीगने लगते हैं और चेतना में एक सिहरन-सी जगने लगती है। यह सब हो भी क्यों न, आज सद्गुरु की पूर्णता की अनुभूति का महोत्सव जो है! गुरु पूर्णिमा अपने प्रभु के स्मरण एवं समर्पण का महापर्व है। गुरु आकृति में नहीं, प्रकृति में दिव्यरूप होते हैं। जो उनकी प्रकृति को पहचानता है, वही शिष्य होने के योग्य है।*
*शिष्यत्व का अर्थ है- एक गहन विनम्रता। शिष्य वही है, जो अपने को झुकाकर स्वयं के हृदय को पात्र बना लेता है। शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है, जिसका एक ही अर्थ है- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन। शिष्य तो वह है, जो जीवन के तत्त्व को सीखने के लिए तैयार एवं तत्पर है; इसके सत्य को समझने के लिए प्रतिबद्ध है। उसका मन लालसाओं के लिए नहीं ललकता, उसकी चेतना कामनाओं से कीलित नहीं होती, वासनाओं के पाश उसे नहीं बाँधते। वह यथार्थ में जिज्ञासु होता है और अपनी अनगढ़ प्रकृति को सुगढ़ एवं सुसंस्कृत करना चाहता है*। इसके लिए उसे स्वयं की प्रकृति का परिशोधन एवं परिमार्जन करना होता है और इस हेतु वह चाहता है मार्गदर्शन।
सद्गुरु भी ऐसों की चाहत के सच्चेपन एवं पक्केपन को कई ढंगों से परखते हैं। *जिस तरह शिष्य ढूँढ़ता है सद्गुरु को, ठीक उसी भाँति सद्गुरु भी खोजते हैं अपने सत्पात्र शिष्य को। इस प्रक्रिया का चरम तब होता है, जब शिष्य अपने अधूरेपन को, अपने अनगढ़ जीवन को सद्गुरु की पूर्णता में समर्पित करता है और सद्गुरु भी अपनी पूर्णता शिष्य में उँड़ेलता है। यही मधुर पल-क्षण होते हैं गुरु पूर्णिमा के महोत्सव के, जिन्हें शिष्य एवं सद्गुरु की चेतना समन्वित रूप से मनाती है।* इसके लिए शिष्य को कड़ी परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ता है। उसके जीवन में संकटों के अंबार लग जाते हैं। *अपने एवं अपनेपन का लगाव एवं गुरु के प्रति समर्पण की भी परीक्षा होती है कि उसके मन का झुकाव किस ओर है।*
*शिष्य इन परीक्षाओं को भी अपने गुरु का अनुदान मानते हैं। यही सचाई है, क्योंकि प्रत्येक परीक्षा के बाद शिष्य की चेतना में एक नया निखार आता है, एक नई चमक एवं आत्मविश्वास पैदा होता है*। ये परीक्षाएँ शिष्य को और अधिक सुयोग्य एवं सुपात्र बनाती हैं। *बाहरी विरह का दरद, अंतर्मिलन की तृप्ति का अनुभव करते ही शिष्य के जीवन में गुरु पूर्णिमा पूर्णता के अनुदानों की वृष्टि करती है। दिव्य अनुदानों की यह वृष्टि शिष्य में तब होती है, जब उसके अंदर से अहं का संपूर्ण विनाश हो जाता है। यह अहं ही है, जो घातक विष बनकर सद्गुरु की पराचेतना के अमृत को हम तक आने से रोके हुए है।* यही है गुरु व शिष्य के मध्य अवरोध। यही है हमारी अंतः चेतना की दयनीय दशा का कारण। *जो शिष्य इसे मिटा देता है और अनुभव करता है कि उसका सर्वस्व गुरु है, उसे ही यह अनुभव होता है कि गुरु का सब कुछ शिष्य का है।*
संदर्भ: *अखंड ज्योति जुलाई 2010* ✍️ पं श्रीराम शर्मा आचार्य ।