राष्ट्रीय डाक दिवस : सूचना- तकनीक की क्रांति के बीच गुम होती चिट्ठियां
National Postal Day: Letters getting lost amidst the information technology revolution
नई दिल्ली, 9 अक्टूबर। “चिट्ठी आई है, आई है, चिट्ठी आई है”। “डाकिया डाक लाया, खुशी का पैगाम कहीं दर्दनाक लाया, डाकिया डाक लाया…”। या फिर “चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश” जैसे गाने आप और हम सब बड़े चाव से सुनते हैं। सिर्फ सुनते हैं, क्योंकि सूचना तकनीक के क्रांति के दौर में चिट्ठी, तार, पोस्ट ऑफिस का महत्व ही खत्म हो गया है।
तकनीक की क्रांति के युग ने डाकिया की चिट्ठी, तार और तमाम वो काम अपने हाथ में ले लिए हैं, जिसके लिए भारत सरकार ने पूरा एक विभाग ‘डाक विभाग’ बना रखा है। अब पलक झपकते ही मोबाइल से न सिर्फ ऑडियो कॉल हो जाता है, बल्कि मैसेजिंग, ईमेल, वीडियो कॉल भी एक क्लिक में हो जाता है। इसके चलते डाक विभाग का काम कम होता जा रहा है।
आज यानी 9 अक्टूबर को हर साल राष्ट्रीय डाक दिवस मनाया जाता है।
आज से 10-15 साल पहले, डाकिए की भूमिका लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण थी। वह हर सुख-दुख में शामिल होते थे, लेकिन समय के साथ व्यवस्था बदल गई है। अब गांव की पगडंडियों पर डाकिए का इंतजार नहीं होता। संचार क्रांति ने भावनाओं को अंगुलियों पर सिमट दिया है, जिससे पत्रों के जरिए संवेदना व्यक्त करने की परंपरा लगभग खत्म हो गई है।
मोबाइल फोन ने इस हाइटेक युग में संचार का स्थान ले लिया है और इसका असर डाकिए की महत्ता पर विपरीत तौर पर पड़ा है। नतीजतन, डाक विभाग भी प्रभावित हुआ है।
भारत में डाक सेवा का इतिहास काफी पुराना है। 1766 में लार्ड क्लाइव ने पहली बार डाक व्यवस्था स्थापित की। इसके बाद 1774 में वारेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता में पहला डाकघर खोला। 1852 में चिट्ठियों पर स्टांप लगाने की शुरुआत हुई। इसके बाद हर शहर और गांव में पोस्ट ऑफिस खोले गए, जहां चिट्ठियों के साथ-साथ पैसों का लेन-देन भी होने लगा। कुछ मामलों में, ये पोस्ट ऑफिस बैंकों का कार्य भी करने लगे। आज, जबकि संचार के साधन बदल गए हैं, डाक विभाग की भूमिका भी बदलती जा रही है।