जैसे ही मायावती ने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का किया एलान विपछियों के खड़े होगये कान

रिपोर्ट:रोशन लाल
बिलरियागंज आजमगढ़

क्या कहती है विपछियों की दबी ज़ुबान, बसपा का अकेले दम पर चुनाव लड़ने का एलान, ”या,, गुमान
यहतो बताएगा चुनाव परिणाम

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने लोकसभा चुनावों से पहले अकेले ही सियासी मैदान में उतरने का आखिरकार अधिकारिक एलान कर दिया। मायावती के इस एलान के बाद समाजवादी पार्टी से लेकर भाजपा के रणनीतिकार अपने-अपने नजरिए से सियासी आंकलन कर रहे हैं। मामला कुछ भी हो सूत्र बताते हैँ कि उनके इस एलान से विपछियों के कान खड़े होगये हैँ। हालांकि जानकारों का मानना है कि मायावती के अकेले चुनाव लड़ने से पार्टी को लोकसभा में सीटों का कितना फायदा होगा यह तो परिणाम ही बताएंगे। लेकिन अपने वोट बैंक के लिहाज से मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने का एलान करके खिसकता हुआ जनाधार बढ़ाने का बड़ा प्रयास किया है। इसके अलावा कहा यह भी जा रहा है कि मायावती ने आकाश आनंद के लिए इस चुनाव में पहली बार खुले तौर पर बगैर किसी दबाव के रणनीति बनाने और उसे अमली जामा पहनाने के लिए अकेले चुनाव लड़ने का बड़ा सियासी मैदान दिया है।

मायावती के लोकसभा चुनाव में अकेले मैदान में उतरने के बाद बसपा के नेता भी मानते हैं कि मायावती का यह दांव सियासी तौर पर फायदेमंद हो सकता है। तर्क देते हुए बसपा के पूर्व जोनल कोऑर्डिनेटर हुसैन सिद्दीकी कहते हैं कि बसपा के लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ने के पार्टी को कई फायदे नजर आ रहे हैं। वह कहते हैं कि इसमें पहला फायदा तो यही है कि पार्टी अपने पूर्व अनुभवों के लिहाज से मानकर चल रही है कि उसका वोट प्रतिशत कम नहीं होगा। दूसरी और महत्वपूर्ण फायदा बसपा को यह है कि मायावती ने अपने वोटरों को एक संदेश दिया है कि उनके वोट बैंक में कोई दूसरा हिस्सेदारी नहीं ले सकता है। सिद्दीकी कहते हैं अगर वोट प्रतिशत कम नहीं होता है, तो निश्चित तौर पर उनकी सीटें भी कहीं कम नहीं होने वालीं। उनका तर्क है कि भाजपा की प्रचंड लहर में भी भले ही उनकी सीटें कम हों, लेकिन वोट प्रतिशत में कोई सेंधमारी नहीं हो सकी। इसलिए बरकरार वोट प्रतिशत के साथ अकेले सियासी होगा,स्ट्रेटजी फॉर पॉलिटिक्स एंड इनिशिएटिव के निदेशक केवी दास कहते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती शुरुआत से ही लोकसभा चुनाव में अकेले मैदान में उतरने की बात करती आई थीं। अब उन्होंने आधिकारिक तौर पर इसकी घोषणा भी कर दी है। दास कहते हैं कि मायावती की हाल में हुई दो बैठकों में दो महत्वपूर्ण फैसले लिए गए, जो कि बहुजन समाज पार्टी की भविष्य की सियासत के लिहाज से महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं। पहला फैसला तब लिया गया जब मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर बहुजन समाज पार्टी में बड़ी सियासी हलचल पैदा की। दूसरा फैसला मायावती ने आधिकारिक तौर पर अपने जन्मदिन वाले दिन अकेले चुनाव लड़ने का करके किया है। उनका कहना है कि जब आकाश आनंद को उत्तराधिकारी घोषित किया गया, तभी इस बात का अनुमान लगाया जाने लगा था कि लोकसभा चुनाव में वह आकाश आनंद के लिए बड़ा सियासी मैदान छोड़ेंगी। अब जब मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की है, तो यह माना जा रहा है कि उन्होंने आकाश आनंद पर बगैर किसी दबाव के राजनीति करने और अपनी पार्टी को आगे बढ़ने का खुला सियासी मैदान दिया है।राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार बृजेंद्र शुक्ला कहते हैं कि यह बात बिल्कुल सच है कि गठबंधन में रहकर आकाश आनंद के लिए अपनी रणनीतियों को आगे बढ़ाने की उतनी खुली आजादी नहीं मिल पाती। अब अकेले चुनाव लड़ने में मायावती सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही सभी सीटों पर अगर विधानसभा का चुनाव लड़ती हैं, तो अपनी रणनीति के लिहाज से आकाश आनंद की योजनाओं और भविष्य की स्ट्रैटेजी के तौर पर वह कई प्रयोग कर सकती हैं। शुक्ल कहते हैं कि आकाश आनंद ने इस दौर में सोशल मीडिया और अन्य कई योजनाओं के साथ सियासी मैदान में अपनी रणनीतियों को आगे बढ़ाना भी शुरू कर दिया है। उनका मानना है कि मायावती ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला उसे दौर में किया है, जब सभी विपक्षी दल मिलकर भाजपा को हराने की कोशिश कर रहे हैं।वहीं बहुजन समाज पार्टी के नेताओं का मानना है कि उनकी पार्टी जब-जब अकेले लोकसभा का चुनाव लड़ती है, तब-तब उन्हें हमेशा फायदा होता है। हालांकि 2019 के चुनाव में जरूर समाजवादी पार्टी और लोकदल के साथ चुनाव लड़कर बहुजन समाज पार्टी को बड़ा फायदा हुआ। लेकिन अन्य लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को अकेले लड़ने पर ही बड़ा फायदा हुआ है। बहुजन समाज पार्टी के नेता आरए विश्वकर्मा कहते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी। लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत 19.71 फ़ीसदी के करीब रहा था। जबकि 2019 में समाजवादी पार्टी के साथ हुए समझौते में 36 सीटों पर चुनाव लड़कर 10 सीटें तो जीतीं, लेकिन वोट प्रतिशत 19.36 फीसदी ही रहा। विश्वकर्मा कहते हैं कि यह वोट प्रतिशत इस बात की तस्दीक करता है कि बसपा अगर अकेले चुनाव लड़ती है, तो उसमें उसे ज्यादा फायदा होता है।बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी अपने जन्मदिन पर इस बात का जिक्र किया जब-जब वह अकेले सियासी मैदान में उतरती है, तो उन्हें हमेशा फायदा होता है। मायावती ने 1993 से लेकर 2007 तक की राजनीति का पूरा जिक्र कर अपनी रणनीति को स्पष्ट किया। 1993 में विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के साथ और 1996 में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़कर मायावती को तीन अंकों में विधायक नहीं हासिल हो सके। जबकि 2002 में अकेले चुनाव लड़ने पर बहुजन समाज पार्टी को 100 सीटें मिलीं और 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने अकेले ही चुनाव लड़कर उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। राजनीतिक विश्लेषक वीके दास कहते हैं कि मायावती अगर इन सभी गणनाओं के आधार पर अकेले चुनाव में जाती हैं, तो यह उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने वाला फैसला माना जा सकता है। दास का मानना है कि उस दौर में जब सभी विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ मिलकर एकजुट हुए हैं, उसमें बहुजन समाज पार्टी जैसी बड़ी पार्टी का ना होना भी महत्वपूर्ण हो जाता है। उनका तर्क है कि बसपा जब शून्य पर पहुंची तब भी तकरीबन बीस फीसदी वोटों के साथ और जब वह 10 सीटें लेकर आईं तब भी बीस फीसदी वोट बैंक, तो उसके हिस्से रहते ही हैं।

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